आदिवासी राजनेता आदिवासियों के सौदेबाज हैं।
आदिवासी राजनेता आदिवासियों के सौदेबाज हैं।
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आदिवासी अपने हक अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन करते हैं । जल, जंगल और जमीन जिस पर सबसे पहले वाशिदें के रूप में उनका अधिकार है, उसकी रक्षा के लिए पूर्वजों ने पोटो हो,डिबर हो, पाण्डु हो, बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू मुर्मू, वीर बुधु भगत, तेलंगा खड़िया जैसे शहीद पैदा किए, लेकिन वर्तमान में आदिवासी राजनेता व्यक्तिगत हित के लिए आदिवासी समाज को भी बेचते हैं। आदिवासी जन आंदोलन के इतिहास में इसके कई उदाहरण हैं। इसी पृष्ठभूमि में यह आलेख तरंग भारती की 1-15 जुलाई 2007 के अंक में प्रकाशित हुआ।
अंग्रेजी हुकूमत के दरमियान पूरे झारखंड के आदिवासियों पर जबरदस्त कहर बरपाया गया। उनसे बेगारी करवायी जाती थी। अपनी ही जमीन का लगान देने के लिए उन्हें मजबूर किया गया। सामूहिक भूमि व्यवस्था पर प्रहार करते हुए पट्टा सिस्टम लागू किया गया। बाहर से आए जमीदार एवं साहूकारोंं के लिए यही उचित अवसर था जब उन्होंने आदिवासी भूमि व्यवस्था यथा खेत-टांड एवं गांव अपने नाम पट्टा में लिखवा लिया। लंबे संघर्ष और बलिदान के बाद वह दिन आया, जब आदिवासी अस्तित्व की रक्षा के लिए 1914 में उन्नति समाज का गठन किया गया। 1938 में उन्नति समाज का नाम बदलकर आदिवासी महासभा रखा गया। 1939 में आदिवासी महासभा के प्रथम सम्मेलन के दौरान जयपाल सिंह मुंडा आदिवासी महासभा के संपर्क में आये। उस समय आदिवासी महासभा छोटानागपुर अलग प्रांत की मांग कर रहे थे। आदिवासियों को जयपाल सिंह मुंडा से काफी उम्मीद थी, चूँकि वे इंग्लैंड से पढ़ कर लौटे थे। 1950 में झारखंड पार्टी बनी और आदिवासी महासभा झारखंड पार्टी में विलय हो गया। 1952 में आजाद देश का पहला आम चुनाव होना था । जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस का प्रचार करने रांची के मोराबादी मैदान आए थे। मैदान में उपस्थित भीड़ ने झारखंड अलग प्रांत का नारा दिया जिससे नेहरू ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि झारखंड फरखंड नहीं चलेगा। अपने भाषण में नेहरू ने कहा था कि कांग्रेस को वोट दें उसी में आपकी भलाई है।
1952 में झारखंड पार्टी ने 33 सीटों पर जीत दर्ज की और प्रमुख विपक्षी पार्टी बनी। अलग प्रांत के लिए लालायित आदिवासी जयपाल सिंह मुंडा से काफी उम्मीद लगाए बैठे थे, लेकिन उन्होंने बिहार विधानसभा में अलग प्रांत की आवाज बुलंद नहीं की। जनवरी 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की टीम को रांची आना था। अत: जयपाल सिंह मुंडा के आह्वान पर हजारों की संख्या में आदिवासी महिला-पुरुष एवं बच्चे ढोल-नगाड़ों के साथ रांची पहुंच रहे थे। आयोग का मुख्य पड़ाव राँची था। जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में झारखण्ड पार्टी के प्रतिनिधि मंडल का आयोग से भेंट करना निश्चित माना गया था। आयोग का टीम रांची पहुंच चुकी थी और ठीक इसी समय जयपाल सिंह मुंडा गायब थे। उनका कहीं भी अता पता नहीं था। जयपाल सिंह मुंडा संसद सदस्य थे और पार्टी के सर्वोच्च नेता थे। पार्टी पर उनका एकमात्र राज था, इसलिए ऐन मौके पर उनका नदारद हो जाना विचित्र था। आयोग को देने वाले स्मारपत्र पर उनका हस्ताक्षर भी नहीं था। तभी उनके विरोधियों को कहने का मौका मिल गया कि जयपाल सिंह मुंडा अलग प्रांत के पक्ष में नहीं है। जयपाल सिंह मुंडा का इस तरह अचानक गायब हो जाना आदिवासियों के पीठ में छुरा घोंपने के समान था।
1957 में दूसरा आम चुनाव संपन्न हुआ। झारखंड पार्टी को 33 की जगह 20 सीटों से संतोष करना पड़ा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जयपाल सिंह मुंडा आदिवासी नेताओं को टिकट देने में आनाकानी करते थे। गैर आदिवासियों को टिकट देते थे। इसलिए कई नेता झारखंड पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे। जयपाल सिंह मुंडा का झारखंड आंदोलन शिथिल पड़ने लगा था। धीरे धीरे झारखंड पार्टी ने मुख्य विपक्षी दल का रुतबा भी गंवा दिया। लोकसभा में उसकी सीटों की संख्या छ: घटकर तीन रह गयी। झारखंड के आदिवासियों का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यही रहा कि झारखण्ड पार्टी के नेता अपनी पार्टी का अस्तित्व और पहचान समाप्त करते हुए पार्टी को कांग्रेस में विलय के लिए तैयार हो गये। 20 जून 1963 में झारखंड पार्टी का कांग्रेस में बिना शर्त विलय हो गया। यह झारखंड पार्टी की सबसे बड़ी हार थी। जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में आदिवासी पुनः छले गये। कांग्रेस में विलयन के लिए जयपाल सिंह मुंडा यदि कांग्रेस के सम्मुख झारखण्ड अलग प्रांत की शर्त रखते तो झारखंड कांग्रेस में विलय की बात समझ में आती लेकिन जयपाल सिंह मुंडा का अचानक कांग्रेस प्रेम समझ से परे था। अलग झारखंड प्रांत के लिए मर मिटने का आह्वान करने वाली झारखंड पार्टी ने जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में अपने आंदोलन की पारी समाप्ति की घोषणा करते हुए अपना अस्तित्व कांग्रेस में विलीन कर दिया। यह झारखंड के आदिवासियों के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात था जिसका खामियाजा आदिवासी आज भी भुगत रहे हैं।
कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करने के बाद जयपाल सिंह मुंडा अपना ज्यादा वक्त दिल्ली में गुजारने लगे। आदिवासी पहली बार आजाद देश में अपने ही आदिवासी नेता द्वारा छले गये। 45 साल के कांग्रेसी ब्राह्मणवादी शासनकाल में आदिवासी इसी उम्मीद के साथ कांग्रेस को आंख मूंदकर वोट देते रहे कि कभी ना कभी कांग्रेस झारखंड अलग प्रांत जरूर बनाएगा। कांग्रेस की ब्राह्मणवादी कूटनीति मंशा तब जाहिर हुई जब 1963 के पूर्व ही जयपाल सिंह मुंडा एचआईसी (भारी इंजीनियरिंग निगम, हटिया) के उद्घाटन के समय नेहरू के साथ देखे गये थे। फिर बोकारो स्टील प्लांट का उद्घाटन कांग्रेसी शासन काल के दरमियान ही हुआ। इस तरह झारखंड में कई विनाशकारी उद्योग धंधे स्थापित किए गये। देश में बिना पुनर्वास नीति बनाये लाखों की संख्या में आदिवासी देश के हित के नाम बलि चढ़ाये गए। अंग्रेजी शासन काल के समय विभिन्न बड़ी परियोजना से लाखों की संख्या में आदिवासी विस्थापित हुए लेकिन राजनेता मूकदर्शक बने रहे। राजनेताओं ने कभी पुनर्वास नीति की मांग नहीं की।
महाजनी शोषण के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन खड़ा करने वाले गुरूजी के नाम से ख्यात शिबू सोरेन का झारखंड की राजनीति में काफी बड़ा नाम है। 1972 में मुक्ति मोर्चा की स्थापना के साथ उन्होंने झारखंड अलग प्रांत का आंदोलन फिर चलाया। शिबू सोरेन का झारखंड पं. बंगाल, उड़ीसा, मध्यप्रदेश एवं बिहार के 18 जिलों को मिलाकर था। कहा जाता है कि शिबू सोरेन ने वृहद झारखंड का सपना देखा था। तीर धनुष लिये नये तेवर के साथ उनके एक ही आह्वान पर हजारों आदिवासी ढोल-नगाड़ों एवं तीर-धनुष ताने मोरहाबादी मैदान में जमा हो जाया करते थे। जिस जोश-खरोश के साथ उन्होंने झारखंड की राजनीति में दस्तक दिया था। सबको लगता था कि शिबू सोरेन के नेतृत्व में कल ही झारखंड अलग प्रांत मिल जाएगा। लेकिन उन्होंने कांग्रेस के नरसिम्हा राव के विश्वास मत हासिल करने को लेकर अपने झारखंड आंदोलन को तीन करोड़ रुपये में बेच दिया। सूरज मंडल, शैलेन्द्र महतो जैसे नेता दागदार हुए। यदि शिबू सोरेन कांग्रेस को विश्वास मत में जिताने के एवज में तीन करोड़ की जगह झारखंड अलग प्रांत की शर्त रखे होते, तो आज शिबू सोरेन प्रत्येक झारखंडियों के दिलो में राज कर रहे होते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अक्सर कहा जाता है कि वर्तमान इतिहास को दोहराता है। शिबू सोरेन ने भी जयपाल सिंह मुण्डा की भांति आदिवासियों को छला। शिबू सोरेन ने पैसे को महत्व दिया और आंदोलन को धराशायी कर दिया। झारखंड में स्थानीयता और आरक्षण की लड़ाई में शिबू सोरेन हमेशा मौन रहे। इन दोनों मुद्दों पर आदिवासियों की वकालत नहीं की। जब डॉमिसाइल का मुद्दा चरम पर था, तब शिबू सोरेन बिहारियों को बड़ा भाई और आदिवासियों को छोटा भाई का दर्जा देने लगे। आदिवासी मुद्दों पर कटट्टरता कभी नही दिखायी। आज शिबू सोरेन बाहरी लोगों से ही पार्टी स्तर पर घिरे हुए हैं। वर्तमान में झारखंड मुक्ति मोर्चा की साख गिरती जा रही है। वही कुड़मी महतो नेता जिन्होंने तृतीय चरण के नामांकन के उपरांत आदिवासी आरक्षण के खिलाफ आंदोलन करते हुए पंचायत चुनाव को बाधा पहुचान के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। आज पंचायत चुनाव का मामला आधार में लटका हुआ है। यही नहीं शिबू सोरेन के परिवारवाद ने उनकी पार्टी एवं छवि दोनों को धूमिल किया है। झारखंड विधानसभा में प्रमुख विपक्षी पार्टी के रूप में झामुमो की साख भी थोड़ी शिथिल जरूर हुई है। अब शिबू सोरेन का उद्देश्य सीमित हो गया है। जेल से निकलकर उन्हें सिर्फ मंत्री बनना है और वे अपने दोनों बेटों के राजनीतिक कैरियर को मजबूत बनाने पर है ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। यही कारण है कि झामुमो में पहले जैसी समर्पित पार्टी सदस्यों को कमी देखने को मिलती है।
ऑल झारखंड स्टुडेंट यूनियन (आजसू) मूलतः आदिवासी नौजवानों की फौज जो झारखंड अलग प्रांत के लिए जोरदार मुहिम चला रखा था। इसके संस्थापक सदस्य सूर्य सिंह बेसरा थे और उनके सहयोगी प्रभाकर तिर्की थे। झारखंड कॉनशिल परिषद् (जैक) के गठन के बाद सुदेश महतो द्वारा आजसू का हाईजैक कर लिया गया। फिलहाल सुदेश महतो आजसू के अध्यक्ष हैं। सूर्य सिंह बेसरा एवं प्रभाकर तिर्की हाशिये पर चले गये। प्रभाकर तिर्की अगले विधानसभा चुनाव की तैयारी के लिए ब तिर्की के विधानसभा क्षेत्र में सेंध मारना शुरू कर दिया है। नवंबर 2000 में झारखड बनते ही सुदेश महतो एनडीए सरकार में पथ निर्माण, खेल-कूद एवं कला संस्कृति को बनते ही करोड़ों रूपये कमाकर अपना भविष्य सुरक्षित कर लिया है। 15 नवंबर 2000 में झारखंड राज्य का गठन हुआ और इसका सारा श्रेय भाजपा ने लिया। झारखंड बनते ही झारखंड की लाज रखते हुए एनडीए (भाजपा) ने बाबूलाल मरांडी को प्रथम मुख्यमंत्री नियुक्त किया। उन्हीं के शासनकाल के दरम्यान झारखंड पंचायती राज अधिनियम लागू हुआ लेकिन उन्होंने पंचायत चुनाव नहीं कराया। जनता पेसा एक्ट के तहत पंचायत चुनाव चाहती थी लेकिन बाबूलाल मरांडी जानबूझकर पंचायत चुनाव को टालते रहे। बाबूलाल मरांडी आदिवासी मुद्दों पर कभी ध्यान नहीं दिया। वे हमेशा संताल परगना काश्तकारी अधिनियम एवं छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम में फेरबदल वकालत करते रहे। ग्रेटर रांची का सपना बाबूलाल मरांडी का था। इन्हीं के शासनकाल में परिसीमन आयोग झारखंड विधानसभा क्षेत्र के सीमांकन से संबंधित जानकारी लेने आया था। लेकिन बाबूलाल ने आदिवासी जनसंख्या के संबंध में आयोग को अंधेरे में रखा। आदिवासी जनसंख्या से आयोग को परिचय नहीं कराया और न ही उन्हें गाइड किया।
झारखंड में आदिवासी परामर्शदातृ परिषद् (टीएसी) का गठन हो चुका है। यह संवैधानिक परिषद् है। इसके चेयरमेन मुख्यमंत्री होते हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि नियमतः इस परिषद् की बैठक तक नहीं होती है। यह परिषद् स्वयं अपने क्रियाकलापों को नहीं जानता, और न ही अपने अधिकारों को पहचानता है। मूलतः परिषद् का काम है अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासी जल, जंगल, जमीन यथा संविधान में आदिवासियों के लिए जो भी प्रावधान है उनकी वकालत करना, आदिवासी अस्मिता एवं अस्तित्व की रक्षा करना है। हास्यस्पद है कि झारखंड में आदिवासी परामर्शदातृ परिषद् मृतप्राय है, यदि अर्जुन मुंडा चाहते तो अपने शासनकाल के दौरान ही आदिवासी परामर्शदातृ परिषद् (टीएसी) की बैठक बुलाकर राज्यपाल को ज्ञापन सौंपकर कहते कि अनुसूचित क्षेत्र में आयोग कदम नहीं रख सकता है और न ही आदिवासी सीटें घटायी जा सकती है। वर्तमान में अर्जुन मुण्डा मधु कोड़ा पर निशाना साधे बैठे हैं कि मंत्रियों की लापरवाही का ही नतीजा है कि आयोग ने सीट घटाने का प्रस्ताव किया है, जबकि अर्जुन मुण्डा के शासनकाल में भी यह मामला लंबित था। अपने शासनकाल में अर्जुन मुण्डा परिसीमन के मामले पर एक शब्द भी नहीं बोला था। अर्जुन मुण्डा के शासनकाल में पेसा के तहत पंचायत चुनाव संपन्न होना था लेकिन अर्जुन मुण्डा पंचायत चुनाव को टालते रहे। पेसा के तहत पंचायत चुनाव का का मामला महज आदिवासी आरक्षण को लेकर कुछ कुरमी नेताओं के इशारे पर सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। अब तक पंचायत चुनाव न होने के पीछे बाबूलाल मरांडी एवं अर्जुन मुण्डा दोनों बराबर के दोषीदार हैं। अर्जुन मुंडा ने आदिवासी विकास से संबंधित कोई भी नीति नहीं बनायी।
बहुमत हासिल करने के लिए एनडीए ने किस तरह से विधायकों की खरीद फरोख्त की यह जगजाहिर है। विधायकों को खरीदने के लिए करोड़ों रुपये कहां से आये यह भी जांच का विषय है। कोर्ट के आदेश के बावजूद अर्जुन मुण्डा न्यायालय को ठेंगा दिखाते रहे। यदि पंचायत चुनाव होता तो राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए केन्द्र सरकार द्वारा ग्राम स्तर के विकास के लिए करोड़ों राशि आवंटित की जाती। गांव का विकास होता। रोजगारन्मुखी के अवसर तलाशे जाते, आदिवासी युवक-युवतियों का महानगरीय रूझान को रोकने में मदद मिलती। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। आदिवासी मुख्यमंत्री के रहते आदिवासी अस्तित्व पर संकट, संस्कृति पर हमला, सामुदायिकता को तोड़ने की कोशिश चलती रही। पलायन, विस्थापन, एमओयू एवं परिसीमन आयोग द्वारा आदिवासी आरक्षित 28 विधानसभा सीटों को घटाकर 22 करने का प्रस्ताव आदिवासी हितों के विपरीत है, यह संविधान के प्रतिकूल है। झारखंड में जितने भी मुख्यमंत्री एवं मंत्री हैं सभी लोक लुभावन बातें करने में बड़े माहिर हैं। अर्जुन मु मुख्यमंत्रित्व काल में उर्दू एवं बंगला को राजभाषा बनाये जाने की पूरी हिमाक्त करने लगे। उर्दू भाषा के विकास के लिए अर्जुन मुंडा सरकार ने करोड़ों का बजट तैयार किया, जबकि ●आदिवासी भाषाओं के लिए बजट शून्य रहा। आदिवासी मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद एवं • विधायकों के होते हुए भी आदिवासी भाषाओं से सौतेला व्यवहार समझ से परे है। झारखंड में आदिवासियों की उपेक्षा तो हुई उनकी अपनी मातृभाषा की भी उपेक्षा हो रही है। झाड सरकार ने सितम्बर 2007 में उर्दू भाषा को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया। अब सभी सरकारी दस्तावेज, विज्ञापन एवं सूचनाएं उर्दू भाषा में भी प्रकाशित की जायेगी। फलस्वरूप उर्दू जानने, लिखने-पढ़ने वालों की बहाली होगी।
गौर करने वाली बात यह है कि एक तरफ सरकारी आंकड़ों में आदिवासियों को सुनियोजित साजिश के तहत प्रत्येक जनगणना आंकड़ों में घटते क्रम में ही दिखाया जा रहा है। वहीं धीरे-धीरे उनकी मातृ भाषा का लोप भी होता जा रहा है। जिसके लिये स्वयं आदिवासी मुख्यमंत्री, मंत्री और विधायक चिंतित नहीं हैं और न ही आदिवासी भाषाओं के विकास के लिये प्रयासरत हैं। शिबू सोरेन रहते बोकारो में हैं लेकिन चुनाव के संताल परगना से लड़ते हैं, लेकिन जब आदिवासी भाषा की लड़ाई लड़ी जा रही है तो वे साधु के समान मौन लगाये बैठे हैं। जिस क्षेत्र और जिन लोगों से वे चुनाव जीतते आये हैं उनकी भाषा को स्थापित एवं विकास करने के लिये वकालत भी नहीं कर रहे हैं। शिबू सोरेन अपने ही वोटर्स को दगा दे रहे हैं। शिबू हमेशा कहते हैं कि बाहरी-भीतरी का सवाल नहीं हैं। इस परिस्थिति में भीतरी को नजरअंदाज करके बाहरी को हक देते रहे तो झारखंड में आने वाली पीढ़ी के लिये कुछ नहीं बचेगा, और न ही कानून आदिवासियों के हक में रहेगा। झारखंड में यदि भाषाओं को राजभाषा का दर्जा देना है तो पहला हक आदिवासी भाषाओं का ही बनता है। वह इसलिये क्योंकि एक तो बंगला, उड़िया, उद् आदि भाषाओं के संरक्षक सरकारें क्रमशः बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में उनको राजभाषा का दर्जा दे चुकी है साथ ही इन भाषाओं को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर में भी प्रोत्साहन मिलता है। लेकिन झारखंड की मूल आदिवासी भाषाएं- ऑस्ट्रिक समूह से संताली, मुण्डा, हो और खड़िया तथा द्रविड़यन समूह से कुडुख भाषाओं के लिये कोई अन्य सरकारें संरक्षक नहीं हैं तब यदि झारखंड की सरकार भी इसकी अवहेलना करती है तो इन आदिवासी भाषाओं का स्वतः लोप हो जाना स्वाभाविक है। आदिवासी भाषाएं विलुप्त हो जायेंगी। एक बात ध्यान देने योग्य यह भी है कि नागपुरी, खोरठा, कुरमाली इत्यादि भाषाएं आर्यन भाषा समूह की अपभ्रंश भाषाएं हैं। ये मूल भाषाएं नहीं है,• जबकि आदिवासी भाषाए मूल और विशिष्ट भाषाएं हैं। जब हम भारत की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता की रक्षा की बात करते हैं तो ऐसी भाषाओं को स्थापित एवं विकास करने के लिये राजभाषा का दर्जा देना अत्यन्त आवश्यक है। नागपुरी, खोरठा कुरमाली इत्यादि भाषाएं आर्यन भाषा समूह की है फिर भी उन्हें राजभाषा का दर्जा देने की मांग की जा रही है तो ऐसी परिस्थिति में आदिवासी भाषाओं को सरकारी दर्जा देना आवश्यक होना चाहिये। भाषाओं की सरकारी मान्यता से जहां एक तरफ वह पढ़न • पाठन का माध्यम बन जाता है। वहीं आदिवासी बच्चे आसानी से अपनी मातृभाषण को पाठ्यक्रम के तहत ग्रहण कर अपनी कक्षाओं में अव्वल होंगे। उन्हें परीक्षा पास होने के लिये रटना नहीं पड़ेगा। वहीं दूसरी ओर साक्षरता का दर बढ़ेगा तथा ड्रॉप-आउट करने वाले बच्चों की संख्या में कमी भी आयेगी।
झारखंड बने पूरे साढ़े छः वर्ष गुजर चुके हैं। आदिवासी मुख्यमंत्री के रहते स्थानीय नीति तक नहीं बन पायी और न ही स्थानीय नीति पर कोई आदिवासी नेता गंभीर दिखते हैं। झारखंड में अधिकांश आदिवासी मूलतः कृषक हैं लेकिन सरकार ने कृषि क्षेत्रों पर ध्यान नहीं दिया। कृषि के विकास के लिए आदिवासी राजनेता पहल नहीं करते। ग्रामीण विकास की करोड़ों राशि नौकरशाहों द्वारा बंदरबाट हो रही है। झारखंड के आदिवासियों का सौभाग्य रहा कि जितने भी मुख्यमंत्री बने सभी आदिवासी ही बने लेकिन दुर्भाग्य कि ये मुख्यमंत्री आदिवासी अस्मिता एवं संस्कृति की रक्षा के लिए जरा भी दिमाग नहीं चलाया न ही हाथ-पांव डुलाया, जिससे कि आदिवासी जन समुदाय गर्व से उनका नाम ले सकें। यूं तो परिसीमन आयोग झारखंड विधानसभा क्षेत्र के आरक्षित सीटों का सीमांकन करने बाबूलाल मरांडी के समय ही आ चुका था। बाबूलाल के बाद ऊर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बनें। अर्जुन मुंडा ने आयोग को आरक्षित विधानसभा क्षेत्र की जनसंख्या प्रतिशत से अवगत नहीं कराया। यदि आयोग का प्रस्ताव नहीं बदलता है और आरक्षित छः सीटें घटती हैं तो इसके लिए बाबूलाल मरांडी एवं अर्जुन मुंडा सहित धु कोड़ा पूर्ण रूप से जिम्मेवार होंगे साथ ही जितने भी आदिवासी राजनेता चाहे वे पक्ष या विपक्ष में क्यों न हो पूर्ण रूप से जिम्मेवार होगें, जनप्रतिनिधि के साथ-साथ आदिवासी जनता भी उतनी ही जिम्मेवार होगी। संविधान में आदिवासियों की स्कार्थ कई कानून हैं। जिनकी जानकारी आदिवासी मंत्रियों को नहीं है। पहली बात तो यह है कि झारखंड में कुल 212 प्रखंड है जिनमें 112 प्रखंड अनुसूचित क्षेत्र के अंतर्गत आते है। इनमें पांचवीं अनुसूची लागू है साथ ही इन क्षेत्रों में शांति एवं गुड गवर्नस के लिए। राज्यपाल को विशेषाधिकार भी दिये गए है। जिसका अक्षरशः निर्वहन नहीं हो रहा है न ही राज्यपाल इन मुद्दों पर गंभीर दिखते हैं। आदिवासी राजनेता चाहे वह कांग्रेस,भाजपा या निर्दलीय रहे, किसी को आदिवासी समाज की चिंता नहीं है। आज आदिवासी समाज की जो दुर्दशा है उसके लिए आदिवासी राजनेता स्वयं जिम्मेवार हैं। गजट में आदिवासी जनसंख्या से संबंधित दस्तावेज है जिसका वे अध्ययन तक नहीं करते हैं। पांचवीं अनुसूची की जानकारी तक नहीं है।
आदिवासी सलाहकार परिषद् जिसके चेयरमैन स्वयं मुख्यमंत्री मधु कोड़ा है लेकिन मधु कोड़ा को अपना अधिकार ही मालूम नहीं है। आदिवासी परामर्शदातृ परिषद् संवैधानिक बॉडी है। इसकी अनुमति के बगैर परिसीमन आयोग झारखंड में कदम भी नहीं रख सकता है। आदिवासी सीटें भी नहीं घटायी जा सकती हैं। आदिवासी मुख्यमंत्री के होते हुए आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटें घटेंगीं, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है। सच देखा जाय तो झारखंड सरकार परिसीमन के मामले को लेकर गंभीर नहीं है। मधु कोड़ा सरकार परिसीमन मामले पर राज्य में कोई भी आंदोलन खड़ा करना नहीं चाहती है। सरकार में शामिल सभी मंत्रियों को अपना मंत्रालय प्यारा है। सभी मंत्री बने रहना चाहते हैं। भाजपा एवं कांग्रेस को आयोग के प्रस्ताव से कोई लेना-देना नहीं है। भाजपा एवं कांग्रेस में जितने भी आदिवासी नेता हैं सभी पार्टी के गुलाम हैं। इन बड़ी राजनीतिक पार्टियों के लिए आदिवासी मुददे कोई मायने नहीं रखता है। बड़ी पार्टियां आदिवासी हितों की बलि चढ़ा रहे हैं। स्थिति यही रही तो आदिवासियों को जड़- मूल से खत्म होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
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